Wednesday, January 4, 2012

हल्का हलके हलके

ये फडफडाता है
आगे की दो बात लेके
कुछ एक का साथ देके

खो जाना चाहता है
बढ़ते हुए कुछ
जादु के लम्हे
गोद दे जाना चाहता है

ये गुदगुदा जाता है
कुछ उन अनजानी बातो से
याद करके अब छोटा लगता है
क्या करता पता नहीं था ना

ये उड़ जाता है
आ रहे कल को देखके
होगी कल दोपहर के बाद की बात
अगल बगल होंगी
किसी के कल की शाम

बिंदु लकीर बन गए वो दृश्य
छौंक में जब खलके तो
ये भी चमचमाता है
अपने पास की लालटेन सोचकर

माथे सिंदूर लगा
मैं आँखों टेढ़ा चश्मा लगा
गिरी सायकिल से टुटा घुटना अच्छा
पड़ी मिटटी में मथा माथा अच्छा
ये फिर से गिर जाना चाहता है

तेज़ कर दे आवाज़
कम आवाज़ कान फोडती है
सुनेगा सुर खुद का
वो बोले इतने जोर से
ये बडबडाना चाहता है

हर दिन वही
रात के बाद दिन वही
बिना दोपहर के दिन नहीं
दिन गिन बीते तो, रातो बैठकर
ये गिनती भुलाना चाहता है


Monday, December 26, 2011

अनायास यूँ ही

मैंने कागज़ पे लिखा था अपना बचपन
आज वही रुपहले कागज़ लिए बेठा हूँ

स्याही की औकात आज समझता हूँ
वो टूटी दवात में डुबो के लिखे थे
नयी कलम हाथ में लिए बेठा हूँ

देखे दिखाए थे कंकड़ जैसे अक्षर
मैं जो बोलूं , आज कोई लिख भी दे,
फिर भी अज्ञात लिए बेठा हूँ

Thursday, May 12, 2011

सोचा तो सुलग पड़ा ऐसे

मेरी साख कंहा तक जाती है
मुझे खुद नहीं पता
पर एक तलब किसी को जताने की
खुद को खुद तक समेट ले आती है

बेबुनियाद तरीके है मेरे
तलब और नासमझी भर देती है
खुश्क भीगना चाहता है यंहा,
पर भीगे को सूखे का अहसास नहीं

वाजिब चीजों के फ़लसफ़े मुझी तक है
गनीमत है उनको कभी कहा नहीं
मेरे कहने से कुछ नहीं बदलता
खुश्क भिगोना चाहे भी तो, मैं तो भीगा ही हूँ

गहरे राज़ दिल में दबे ही रहते है
निकलते निकलते उड़ते पंछी से हो जाते है
मैं क्या कहूँ, कहने की हालत नहीं
खुश्की मिटती नहीं, और वो बरसता नहीं

अपनी शख्सियत कितनी महँगी होती है
मैं तो कहूँगा बेच दो, जितनी भी हो
अगर अभी भी खुश्क है, तो बिक जायेगी
किसी ने सही में खरीदना चाहा तो..
बिकने ही नहीं जायेगी

बची चीजों को तराजू में तोलने का मतलब नहीं
उनसे कुछ वक़्त बच जाए तो रख लो
वो लगी हुयी जंग जितनी ही कीमती है
अभी भी तराजू ताक में रखा है तो
अगली बार लोहा ही न लेना

..paras

कल फिर

होश की आवाम मैं बेनकाब होते है कई किस्से,
बेहोश दब जाते कुछ, जो कभी महसूस होते है,
अनजान हवा का रुख, दूर कंही से जो निकला है ,
पास आते आते और बेतरतीब सा हो जाता है,
इस दफा , और क्या उस दफा .....
दिल तो कल भी वही करेगा, जितना उसने जाना है

Thursday, April 14, 2011

एक बात कह दूँ

कभी जो कुछ आम थे
अब याद बन जायेंगे
सूखे पत्तो की तरह
गिरे जमीन पे ..
पड़े पड़े कुछ बात कह जायेंगे

मौसम के इस पल में अब वो पतझड़ है
अगले पतझड़ तक कुछ मौसम
और गुज़र जायेंगे ..
तनिक फिर अगर जो गुज़रा तो
गुज़र के वो ज़माना बन जायेंगे

उतरी टहनियों से कभी प्यार ना था
वो बहते रास्तो को रोका करती थी
वहीँ कंही चलते चलते
आज कुछ मुझे अजीब सा लगा

इन्ही रास्तो पे बीते है
कुछ एक ऐसे पल ..
जिनके जाने का यकीन भी ना था
अब उतरती हुई ये हवा जैसे
पैरो को छु छुके जाती है

मौसम की अजीब हरकतों पे
मैं खूब झल्लाया हूँ ..
इस जमी हुयी बर्फ की चादर में
रौंदती हुयी आंधी की याद हो आती है

शायद मेरी फितरत में है ऐसा कुछ
गुज़रा वो कुछ आसान सा लगता है
मगर सोच एक बार के लिए युहीं थम जाती है ...
कंही उन सब में कुछ अच्छा तो था

डूबती हुई ये सांझ रोज आती है
आज सूरज के थमते हुए पीले रंग में कुछ है ..
कुछ पुरानी चादरे ...जिनको ढक के
खूब कोसा है .. इन्हीं शामों को

खुद को हमेशा एक भीड़ से घिरा माना है
वो चेहरे जो हर वक़्त ख्याल तोड़ जाते है
नहीं देखता था चलते चलते ..
आज क्यूँ लगा की कुछ कहना उनको भी बाकी था

मेरी फितरत फिर रंग लाती है
सोचा की जाते हुए कुछ करिश्मा कर दूँ
जिनसे कभी नजरो की बात नहीं हुयी..
मुलाकात कर आज कुछ कह दूँ

यकीन किसी चीज़ में इतना बस जाता है
अच्छा हो ..बुरा हो..अपने से जुड़ जाता है
बीती बातों का क्या .. बीतती ही रहती है
मैं इतना जीया , बीतना कम सा लगा

कुछ चीज़े बस यूँही मिल जाती है
मिलने पे उनके .. कभी सवाल नहीं होते
हिस्सा बन जाती है वो , बिना किसी गौर के
वक़्त का पाया बेठा... बेठा ... मौज उड़ा ही देता है

भारी भरकम बोझों तले दबता आया हूँ
रुकते रुकते इतना वक़्त बिता दिया
कल सुबह इन्हीं गलियों से निकलते वक़्त ..
सिर्फ मेरा सामान ही भारी ना होगा

कुछ ऐसा जिसे कहने की जरुरत नहीं
कुछ ऐसे जिन्हें कहने की जरुरत थी ..
वो जानते है ... मैं जानता हूँ ...
बहकती रंगीन जिन्दगी की पिटारों में
कुछ बहारें ... साथ में थी
और अब आगे कुछ अलग होंगी ..

बस यूँही सोचा की ...
जाते हुए लम्हों को
एक बात कह दूँ .

..paras

Thursday, March 17, 2011

वो बरसती तो है

बरसती रैना में
कुछ तरसते ख्वाब से थे
महके महके
सुर्ख गुलाब से थे

कागज़ की तरह
उड़ने को तैयार
मदिरा पिला
बहकाने को ,
आमाद से थे

ऐसे जो देखा तो
कुछ ऐसे जाना की
आज तो भीग ही जाऊँगा
भीगा तो सही, पर
वो ही बरसने को ,
तैयार न थे

कितनो को कब कब
जाके कहूँ,
की ख्वाबो को जीते वक़्त,
रैना में भीगते वक़्त,
कैसा लगता होगा
जब खुद ही जताने को,
तैयार न थे

कब कब खुद को जा बतलाऊ
की ख्वाबो को ऐसे नहीं जीते,
फिर बरसती रैना में तो,
सब भीग जाते होंगे,
फिर , मेरे लिए ही क्यों
सवाल तैयार थे

ये तरसाती रैना
आ आके जाती है
बोले तो गरज सुनु
बिल बोले बस मंडराकर
क्या समझती वो रैना

पूछ पूछ के हार जाये कोई
ऐसे जैसे इस बार
चमकी जो बिजली
की अब बरसुंगी
की अब बरसुंगी,
बेहतर खुद को चमक में
भंजित कर लेना

लिपट के ठंडी हवा
कुछ खास तब भी न बोलेगी
मैं कहता हूँ
आज ही की तो बात है
पर उसे लगता है
की आज और फिर कल
इस बदली को ला देना

फिर सवाल एक
की जितने दिन ,
मैं इंतज़ार में
इतने दिन ये किसमे गुम,
शायद,
बदली बनते मदहोश रहती होगी

या, जिस पे बरसना है,
वो बहुतेरे है
ऐसे जैसे, अगर मैं न हूँ
तो भी कुछ खास न लेना

क्रम का अंत तो तब संभव है
जो कोई कुछ सिखा के जाता
बस वही..
बदली बदल बदल के छाती रही
मैं नीचे मंडराता रहा

समझ के कुछ,
इच्छा पे कटार चलायी,
मुरझे लिए गुलाब बस मुड़ा सा था,
शायद उसे लगा होगा
मेरे तांडव अब देखेगा कौन
रोज़ रोज़ वो मंडराती थी
बिजली जो चमकाती थी
शायद कुछ सोचा होगा उसने
दो मोटे मोटे छींटे
एक सर पे और
आधा एक पाव पे
तब गिर आन पड़े थे

न समझो की,
मैं रुका था फिर..
शायद बरसती रैना में
वो मेरे सुखे ख्वाब
कुछ ऐसे परिभाषित थे

..paras

Friday, December 17, 2010

कहीं ऐसे

कहीं ऐसे जाना
की दिल के कौने में कहीं जो सच्चाई छुपी है
वो सच्ची है...
उसी को लेके तराशने का मौका ढूढ रहा हूँ
मिली तो यकीन है ख़त्म न होगी
बस मिले तो सही

तलाश ही ऐसी है
भले ही नज़रे बंद कर के
अंधेरो में नज़ारे घूमता हूँ
रौशनी अन्दर की आवाज़ देती है
देखने को अँधेरे भी खूब है
फिर नहीं दिखी वो तो
सुन लूँगा उसे ..

यकीन जज्बात से पैदा होता है
खुदा का खुद पता नहीं है
बस सुना है की होता है
वो यकीन ना में करते है
और मैं होने में
फरक कुछ नहीं है
उन्हें बैठने में तसल्ली है
और मुझे ढूढने में

खुद तलाश का पता हो तो
असर जल्दी ख़त्म हो जाता है
कहते है की
वंहा पहुँच के जन्नत नसीब होती है
अब और क्या कहूँ
चला जा रहा हूँ
इतने में ही जन्नत का मेहराब
दिखाई जान पड़ता है

..paras