Saturday, August 14, 2010

क्या करू आज़ाद हूँ

निकला हूँ एक गली में
कितनी साफ सुथरी सड़क है
पर नज़रे कचरा ढूढती है
क्या करू आज़ाद हूँ

काश अकेला होता
एक वीरान टापू पे
ढूढता टूटी टहनियों को
सोचता आग कैसे लगती है
क्या करू आज़ाद हूँ

मेरा एक घर है
नहीं नहीं...
एक बड़े घर में मेरा भी एक घर है
मेरा तो दरवाज़ा बंद है
आँगन से आती हुई रौशनी ताकता हूँ
क्या करू आज़ाद हूँ

मैं तो निडर हूँ
कुछ है जो डरना तय करते है
बस उनसे बनी अनबन ना हो जाये
क्या करू आज़ाद हूँ

मेरे बस का ना पूछो
सुबह सुबह सफ़ेद कागज़ को पढके
नाक सिघोड़ने की हिम्मत है
क्या करू आज़ाद हूँ

अभी अभी एक दुकान देखी
मेरे भाई की ही है
सिखाया मैंने ही था ...
अगली कैसे बनानी है
क्या करू आज़ाद हूँ

लटकते रंगों के पट्टो से कुछ याद आता है
घरवालो ने कुछ मंगाया था
क्या जाना उसी दुकान पड़ेगा
नहीं ...कुछ.. कंही और से ले आऊंगा
जिसकी हकीक़त का पता न हो
क्या करू आज़ाद हूँ

जो कल आया था एक पडोसी
सीना तान के घर दिखाया
कोने में पड़ी मिटटी का जो पूछा ..
कहा जाना इसी में है, देख देख के..
शौक है मुझे याद रखने का
क्या करू आज़ाद हूँ

उसे जोर जोर से बताया
रहते हुई कई साल हो गए
जगह से मुझे प्यार हो गया ...
बोलती चीजों को बदलने का दिल नहीं करता
क्या करू आज़ाद हूँ

अब सोचा है नया रंग करवाऊंगा
एक ने टोका, जब इत्ते तक नहीं तो अब क्यूँ
बात वाजिब लगी, मिटटी को फिर देखा
फिर मौत याद आ गयी ...
क्या करू आज़ाद हूँ

छत से कभी पानी टपकता है
धोती वाले की आस का असर है
मौसमी बारिश को भी अब कोसता हूँ..
खैर चलो थोड़ी मिटटी मेरी भी बह जाती है
बचे कीचड़ से ठंडी हवा लग जाती है
क्या करू आज़ाद हूँ

अजब लगता है बच्चों को देख
बेफिक्र आँगन में खेलते रहते है
मिटटी हो पानी हो धुप को भी सेकते रहते है
रोब मारा.. मेरे घर का जो एक दिन
चले गए कही और, अब याद आती है
क्या करू आज़ाद हूँ

पास की संगीत लहरियों को सुन
मुझको भी रंग रास आने लगा
सही है ..कुछ समय आनंद को भी देना चाहिए
चूल्हे के पास बिजली का तार लगाने लगा
क्या करू आज़ाद हूँ

कई बार वक्त बीत जाता है
उन बहुतो को सोचते हुए
जो मेरे साथ में ही रहते है
कुछ जो अच्छे है, और कुछ वो...
जिन्हें वो अच्छे...बुरा बताते है
क्या करू आज़ाद हूँ

घर में चल पड़ी है कई दरारे
पास में वो बुरे शायद कुछ करते है
नहीं मेरी दिवार तो मजबूत है
उन्हें बता दूंगा मैं अब...
की उनकी कितनी कमज़ोर है
क्या करू आज़ाद हूँ

बहुत बताया तुमको और सुनो
मेरा घर तो एक छोटा सा कमरा है..
उसी की बात कर रहा था..
एक बड़े घर के लिए तो कई कमरे बेचने पड़ते है !
क्या करू आज़ाद हूँ !


...
Jai Hind
paras
15 Aug 2010

2 comments:

Unknown said...

:), it was nice to read this poem.
Happy independence day- " jai Hind "

Shweta Sharma said...

bhaiya great poem as could understood.
baghban rota hai apne gul ki kali ke murjhane par,
ansuon se seechta hai uske phir khil uthane ki aas par,
aur main.. bus tan chedta raha uski har siski par,
kya karun azad hun....