Saturday, October 9, 2010

चाह

मैं बीत जाना चाहता हूँ
हंसी के गलियारों में
बहा के ले जाती है
रह रह के ठंडी हवा
वहां मुझ को..

कुछ मुस्काने दबी पड़ी है
वंहा जैसे अभी , वो वहीँ है
पलको भीतर जिन्दा है
दौड़ते हुए बातें करता हूँ
दूर हूँ, कंही साथ लेके चलता हूँ

जान पड़ता है, जैसे वहीँ है सब
बस थोड़ी सी देर हो गयी
मैं गया नहीं , पर ...
वक़्त के थपेड़े लगते रहते है,
फिर , बदलना तो मेरी भी आदत है

शुरू से जब पैदा होता हूँ
हर चीज़ पीछे छूट जाती है
ये तरीका किसी ने दिया है
की.. बदलने की चाहत में
पूरा बीत जाता हूँ .