Wednesday, January 4, 2012

हल्का हलके हलके

ये फडफडाता है
आगे की दो बात लेके
कुछ एक का साथ देके

खो जाना चाहता है
बढ़ते हुए कुछ
जादु के लम्हे
गोद दे जाना चाहता है

ये गुदगुदा जाता है
कुछ उन अनजानी बातो से
याद करके अब छोटा लगता है
क्या करता पता नहीं था ना

ये उड़ जाता है
आ रहे कल को देखके
होगी कल दोपहर के बाद की बात
अगल बगल होंगी
किसी के कल की शाम

बिंदु लकीर बन गए वो दृश्य
छौंक में जब खलके तो
ये भी चमचमाता है
अपने पास की लालटेन सोचकर

माथे सिंदूर लगा
मैं आँखों टेढ़ा चश्मा लगा
गिरी सायकिल से टुटा घुटना अच्छा
पड़ी मिटटी में मथा माथा अच्छा
ये फिर से गिर जाना चाहता है

तेज़ कर दे आवाज़
कम आवाज़ कान फोडती है
सुनेगा सुर खुद का
वो बोले इतने जोर से
ये बडबडाना चाहता है

हर दिन वही
रात के बाद दिन वही
बिना दोपहर के दिन नहीं
दिन गिन बीते तो, रातो बैठकर
ये गिनती भुलाना चाहता है