Friday, December 17, 2010

कहीं ऐसे

कहीं ऐसे जाना
की दिल के कौने में कहीं जो सच्चाई छुपी है
वो सच्ची है...
उसी को लेके तराशने का मौका ढूढ रहा हूँ
मिली तो यकीन है ख़त्म न होगी
बस मिले तो सही

तलाश ही ऐसी है
भले ही नज़रे बंद कर के
अंधेरो में नज़ारे घूमता हूँ
रौशनी अन्दर की आवाज़ देती है
देखने को अँधेरे भी खूब है
फिर नहीं दिखी वो तो
सुन लूँगा उसे ..

यकीन जज्बात से पैदा होता है
खुदा का खुद पता नहीं है
बस सुना है की होता है
वो यकीन ना में करते है
और मैं होने में
फरक कुछ नहीं है
उन्हें बैठने में तसल्ली है
और मुझे ढूढने में

खुद तलाश का पता हो तो
असर जल्दी ख़त्म हो जाता है
कहते है की
वंहा पहुँच के जन्नत नसीब होती है
अब और क्या कहूँ
चला जा रहा हूँ
इतने में ही जन्नत का मेहराब
दिखाई जान पड़ता है

..paras

Thursday, November 4, 2010

आनंद

अधरों कहानी बात वो बोले
जब जब जाए फिर से टन्टोले
मद का क्या मैंने हर वक़्त साधा
बना आदी, छोड़ किनारे, बना अब आधा
जग सब दिलादे मैं जाऊ, अब मद को पाने
है कुछ नहीं . पर जब पी लू तब तब ले आऊ .. .

मद में हिलोर जो लागे
आनंद उपज खुद की ही लागे
जो हो लू ऐसे किसी पीड़ा से
हिलोर मिला मैं पी जाऊ
फिर दिवाली, फिर हो होली
रंग खेलु या फिर दिये जलाऊ .

शुभ दीपावली
॥ पारस ॥

Tuesday, November 2, 2010

ऐ मौला

दूर हरियाली में मेहनत करे, उस से धुल दो शब्द मांगे
हरों को वो आबाद करे, लौटा उसे ढाणी दे मौला !

रेत की सपाट चादर पे, हवाए रेंग रेंग चली गयी
अब मेरी नज़रे दौड़ती है, उस पे वो दो पाग बना दे मौला

जूनून विदा कर देता है, धरती आस लगा लेती है
अब तो खूब बरस भी गया, प्यासों को वापिस बुला ले मौला

उजड़े उजाड़ में आते है , बस देख देख के जाते है
पता वहीँ का देती हूँ, उनको भी आबाद बना देगा मौला

मेघ खूब उमड़ आते है तो क्या, प्यास वहां क्या लगती नहीं
बंज़र पे लगा दे तू पौधा, प्यास का मतलब बता दे मौला

सांझ तेरी थली पे नित आऊ, तेरा दिया रोज़ जलता है
मंदिर मस्जिद रोज बेठता है, खुद को दिलो में बसा दे मौला

दर पे एक दिन भी बाती मैंने न जलाई, आने वालो की कमी नहीं
तेरा घर जिसने ना भी देखा, उनके भी दुःख मिटा दे मौला

Saturday, October 9, 2010

चाह

मैं बीत जाना चाहता हूँ
हंसी के गलियारों में
बहा के ले जाती है
रह रह के ठंडी हवा
वहां मुझ को..

कुछ मुस्काने दबी पड़ी है
वंहा जैसे अभी , वो वहीँ है
पलको भीतर जिन्दा है
दौड़ते हुए बातें करता हूँ
दूर हूँ, कंही साथ लेके चलता हूँ

जान पड़ता है, जैसे वहीँ है सब
बस थोड़ी सी देर हो गयी
मैं गया नहीं , पर ...
वक़्त के थपेड़े लगते रहते है,
फिर , बदलना तो मेरी भी आदत है

शुरू से जब पैदा होता हूँ
हर चीज़ पीछे छूट जाती है
ये तरीका किसी ने दिया है
की.. बदलने की चाहत में
पूरा बीत जाता हूँ .

Thursday, September 9, 2010

कराह

प्रेम कर भले, .... रब को पाले
बैर रख भले... जल जा ... मन को दे जाने
कर ले .. कर ले , उसको इतना कर ले
जब बेठ अँधेरे में, आँख जो खोले
सुलगता हुआ कुछ तो मिलेगा
तुझको .....
जिसने तपाया था, राख में भी आ ..पाले

ख़ुशी का क्या है, एक जो भ्रम है
और वो दूजा... जो भ्रम में डाले
हो लेगा एक पल में उसका...
आजा अन्दर के अँधेरे में
दूजे में ... वो खुद तुझको अँधेरे में डाले

प्रेम, बैर....अपना या कोई गैर
सब सुलगते है ... एक..
चमकती रौशनी में
किसी को ना कुछ जान पड़ता है
बस टपकेंगे कुछ बूंद आंसू के
वो एक तलब है ...
शायद किसी के ना होने की
या शायद कोई हो ... ऐसे की

बंद आँखों में बहकते हुए सारे .. सब
एक मुस्कराहट में इतनी सरलता से
बह ... जायेंगे
आन पड़ेगा .. कभी जान पड़ेगा
क्या था वो ... क्यों किया मैंने ..
कुछ नहीं आने दे !

बात बातो की हमेशा रहेगी
आज कल और फिर परसों
या उस से पहले ...
खाक तो होना ही था ..
फिर बीता याद आता है
तय करना होता है
शायद पहले ..
जब खाक होगा.. तो सोचना ना पड़े ..
मुझसे क्या छुटा था

बस वक़्त की ही तो बात होती है
कुछ देखते है ... और जब
तू करता है ... तो कुछ कहते है
क्या फरक है ?
सब अब उस ..रौशनी में सुलग रहे है
वो जलाके जलते है .. तू जलके जल रहा है

कभी..... एक रचना सिर्फ ढोंग की होती है
किसी से पूछो तो उसे सोचना होता है ..
फिर सोचता हूँ .. सीधा जवाब तो ..
जबान पर होता है ..
फिर क्यूँ ... !

बह गया सब .. पर कुछ था नहीं मेरा
जो मेरा था .. वो एक मेरा ही ले गया
ऐसा होता है .. जब वो मेरा .. मेरे बाहर होता है
गए हुए में .. अब मैं क्यों मेरा ढूढू
सब संग ही तो ..सुलग रहे है

मुड के जब पीछे देखता हूँ तो
सुलगती रौशनी अलाव बन जाती है
कडकती ठण्ड में मन को अजीब सा ...
आराम देती है..
पर ठण्ड तो मौसमी है ..
जब तक काम ना करूँ
अगली गर्म तक ..
जब तक खुद ना तपता रहूँ

कभी.. कभी सुलगते हुए को
देखने में कुछ बुरा नहीं है
देखना भी चाहिए..
कितने मौसम पार किये है
बरसती बूंदों में .......
खुद ने भी कुछ दान किये है

महक तो बसंत है
प्रेम एक बहक है..
ख़ुशी में एक ललक है
उसका अगला भी आता है
हर किसी को कुछ ऐसा ..
लिखवा जाता है
ले ..
तू पढ़ ले इसी मौसम में
अलाव तो अभी.. अभी सुलगा है
पर वो मेरा है
तेरा कुछ नहीं है ..
तू बस ताप रहा है ..
ताप ले .. ..और चला जा

..paras

Saturday, August 14, 2010

क्या करू आज़ाद हूँ

निकला हूँ एक गली में
कितनी साफ सुथरी सड़क है
पर नज़रे कचरा ढूढती है
क्या करू आज़ाद हूँ

काश अकेला होता
एक वीरान टापू पे
ढूढता टूटी टहनियों को
सोचता आग कैसे लगती है
क्या करू आज़ाद हूँ

मेरा एक घर है
नहीं नहीं...
एक बड़े घर में मेरा भी एक घर है
मेरा तो दरवाज़ा बंद है
आँगन से आती हुई रौशनी ताकता हूँ
क्या करू आज़ाद हूँ

मैं तो निडर हूँ
कुछ है जो डरना तय करते है
बस उनसे बनी अनबन ना हो जाये
क्या करू आज़ाद हूँ

मेरे बस का ना पूछो
सुबह सुबह सफ़ेद कागज़ को पढके
नाक सिघोड़ने की हिम्मत है
क्या करू आज़ाद हूँ

अभी अभी एक दुकान देखी
मेरे भाई की ही है
सिखाया मैंने ही था ...
अगली कैसे बनानी है
क्या करू आज़ाद हूँ

लटकते रंगों के पट्टो से कुछ याद आता है
घरवालो ने कुछ मंगाया था
क्या जाना उसी दुकान पड़ेगा
नहीं ...कुछ.. कंही और से ले आऊंगा
जिसकी हकीक़त का पता न हो
क्या करू आज़ाद हूँ

जो कल आया था एक पडोसी
सीना तान के घर दिखाया
कोने में पड़ी मिटटी का जो पूछा ..
कहा जाना इसी में है, देख देख के..
शौक है मुझे याद रखने का
क्या करू आज़ाद हूँ

उसे जोर जोर से बताया
रहते हुई कई साल हो गए
जगह से मुझे प्यार हो गया ...
बोलती चीजों को बदलने का दिल नहीं करता
क्या करू आज़ाद हूँ

अब सोचा है नया रंग करवाऊंगा
एक ने टोका, जब इत्ते तक नहीं तो अब क्यूँ
बात वाजिब लगी, मिटटी को फिर देखा
फिर मौत याद आ गयी ...
क्या करू आज़ाद हूँ

छत से कभी पानी टपकता है
धोती वाले की आस का असर है
मौसमी बारिश को भी अब कोसता हूँ..
खैर चलो थोड़ी मिटटी मेरी भी बह जाती है
बचे कीचड़ से ठंडी हवा लग जाती है
क्या करू आज़ाद हूँ

अजब लगता है बच्चों को देख
बेफिक्र आँगन में खेलते रहते है
मिटटी हो पानी हो धुप को भी सेकते रहते है
रोब मारा.. मेरे घर का जो एक दिन
चले गए कही और, अब याद आती है
क्या करू आज़ाद हूँ

पास की संगीत लहरियों को सुन
मुझको भी रंग रास आने लगा
सही है ..कुछ समय आनंद को भी देना चाहिए
चूल्हे के पास बिजली का तार लगाने लगा
क्या करू आज़ाद हूँ

कई बार वक्त बीत जाता है
उन बहुतो को सोचते हुए
जो मेरे साथ में ही रहते है
कुछ जो अच्छे है, और कुछ वो...
जिन्हें वो अच्छे...बुरा बताते है
क्या करू आज़ाद हूँ

घर में चल पड़ी है कई दरारे
पास में वो बुरे शायद कुछ करते है
नहीं मेरी दिवार तो मजबूत है
उन्हें बता दूंगा मैं अब...
की उनकी कितनी कमज़ोर है
क्या करू आज़ाद हूँ

बहुत बताया तुमको और सुनो
मेरा घर तो एक छोटा सा कमरा है..
उसी की बात कर रहा था..
एक बड़े घर के लिए तो कई कमरे बेचने पड़ते है !
क्या करू आज़ाद हूँ !


...
Jai Hind
paras
15 Aug 2010

Wednesday, May 19, 2010

मनु मानस

आँखों के बंद दायरे में
कोई अहसास सा ना है
बस एक मुस्कान की चमक
दिल में घर कर जाती है...

जब मेरी परछाई मुझसे घबराती है
एक गुम्बद सर पे आ बनता है
इतना बड़ा इतना विशाल
फिर सूरज की तपन मिट जाती है ...
परछाई नहीं, उसकी शीतल मिल जाती है

आती हुई आंधियों के डर से
जब घबरा के आंखे बंद कर लेता हूँ
एक नरम मुस्कान बारिश बन आती है
फिर आंखे खुली होती है बहती हुई आंधी में
बरसी हुई रेत ... एक महक बन जाती है

आते जाते बवंडरो में डर लगता है
उनसे मिलके खुद की हस्ती गुम ना हो जाए
पकड़ के उसका सहारा, वही रहता हूँ बनके
खुद एक बवंडर, फिर कितने आये जाए...
घुमाव कितने घुरीले, खुद एक लकीर बन जाती है ।

.. पारस