मैंने कागज़ पे लिखा था अपना बचपन
आज वही रुपहले कागज़ लिए बेठा हूँ
स्याही की औकात आज समझता हूँ
वो टूटी दवात में डुबो के लिखे थे
नयी कलम हाथ में लिए बेठा हूँ
देखे दिखाए थे कंकड़ जैसे अक्षर
मैं जो बोलूं , आज कोई लिख भी दे,
फिर भी अज्ञात लिए बेठा हूँ
Monday, December 26, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment