ये फडफडाता है
आगे की दो बात लेके
कुछ एक का साथ देके
खो जाना चाहता है
बढ़ते हुए कुछ
जादु के लम्हे
गोद दे जाना चाहता है
ये गुदगुदा जाता है
कुछ उन अनजानी बातो से
याद करके अब छोटा लगता है
क्या करता पता नहीं था ना
ये उड़ जाता है
आ रहे कल को देखके
होगी कल दोपहर के बाद की बात
अगल बगल होंगी
किसी के कल की शाम
बिंदु लकीर बन गए वो दृश्य
छौंक में जब खलके तो
ये भी चमचमाता है
अपने पास की लालटेन सोचकर
माथे सिंदूर लगा
मैं आँखों टेढ़ा चश्मा लगा
गिरी सायकिल से टुटा घुटना अच्छा
पड़ी मिटटी में मथा माथा अच्छा
ये फिर से गिर जाना चाहता है
तेज़ कर दे आवाज़
कम आवाज़ कान फोडती है
सुनेगा सुर खुद का
वो बोले इतने जोर से
ये बडबडाना चाहता है
हर दिन वही
रात के बाद दिन वही
बिना दोपहर के दिन नहीं
दिन गिन बीते तो, रातो बैठकर
ये गिनती भुलाना चाहता है
Wednesday, January 4, 2012
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