Thursday, September 9, 2010

कराह

प्रेम कर भले, .... रब को पाले
बैर रख भले... जल जा ... मन को दे जाने
कर ले .. कर ले , उसको इतना कर ले
जब बेठ अँधेरे में, आँख जो खोले
सुलगता हुआ कुछ तो मिलेगा
तुझको .....
जिसने तपाया था, राख में भी आ ..पाले

ख़ुशी का क्या है, एक जो भ्रम है
और वो दूजा... जो भ्रम में डाले
हो लेगा एक पल में उसका...
आजा अन्दर के अँधेरे में
दूजे में ... वो खुद तुझको अँधेरे में डाले

प्रेम, बैर....अपना या कोई गैर
सब सुलगते है ... एक..
चमकती रौशनी में
किसी को ना कुछ जान पड़ता है
बस टपकेंगे कुछ बूंद आंसू के
वो एक तलब है ...
शायद किसी के ना होने की
या शायद कोई हो ... ऐसे की

बंद आँखों में बहकते हुए सारे .. सब
एक मुस्कराहट में इतनी सरलता से
बह ... जायेंगे
आन पड़ेगा .. कभी जान पड़ेगा
क्या था वो ... क्यों किया मैंने ..
कुछ नहीं आने दे !

बात बातो की हमेशा रहेगी
आज कल और फिर परसों
या उस से पहले ...
खाक तो होना ही था ..
फिर बीता याद आता है
तय करना होता है
शायद पहले ..
जब खाक होगा.. तो सोचना ना पड़े ..
मुझसे क्या छुटा था

बस वक़्त की ही तो बात होती है
कुछ देखते है ... और जब
तू करता है ... तो कुछ कहते है
क्या फरक है ?
सब अब उस ..रौशनी में सुलग रहे है
वो जलाके जलते है .. तू जलके जल रहा है

कभी..... एक रचना सिर्फ ढोंग की होती है
किसी से पूछो तो उसे सोचना होता है ..
फिर सोचता हूँ .. सीधा जवाब तो ..
जबान पर होता है ..
फिर क्यूँ ... !

बह गया सब .. पर कुछ था नहीं मेरा
जो मेरा था .. वो एक मेरा ही ले गया
ऐसा होता है .. जब वो मेरा .. मेरे बाहर होता है
गए हुए में .. अब मैं क्यों मेरा ढूढू
सब संग ही तो ..सुलग रहे है

मुड के जब पीछे देखता हूँ तो
सुलगती रौशनी अलाव बन जाती है
कडकती ठण्ड में मन को अजीब सा ...
आराम देती है..
पर ठण्ड तो मौसमी है ..
जब तक काम ना करूँ
अगली गर्म तक ..
जब तक खुद ना तपता रहूँ

कभी.. कभी सुलगते हुए को
देखने में कुछ बुरा नहीं है
देखना भी चाहिए..
कितने मौसम पार किये है
बरसती बूंदों में .......
खुद ने भी कुछ दान किये है

महक तो बसंत है
प्रेम एक बहक है..
ख़ुशी में एक ललक है
उसका अगला भी आता है
हर किसी को कुछ ऐसा ..
लिखवा जाता है
ले ..
तू पढ़ ले इसी मौसम में
अलाव तो अभी.. अभी सुलगा है
पर वो मेरा है
तेरा कुछ नहीं है ..
तू बस ताप रहा है ..
ताप ले .. ..और चला जा

..paras

Saturday, August 14, 2010

क्या करू आज़ाद हूँ

निकला हूँ एक गली में
कितनी साफ सुथरी सड़क है
पर नज़रे कचरा ढूढती है
क्या करू आज़ाद हूँ

काश अकेला होता
एक वीरान टापू पे
ढूढता टूटी टहनियों को
सोचता आग कैसे लगती है
क्या करू आज़ाद हूँ

मेरा एक घर है
नहीं नहीं...
एक बड़े घर में मेरा भी एक घर है
मेरा तो दरवाज़ा बंद है
आँगन से आती हुई रौशनी ताकता हूँ
क्या करू आज़ाद हूँ

मैं तो निडर हूँ
कुछ है जो डरना तय करते है
बस उनसे बनी अनबन ना हो जाये
क्या करू आज़ाद हूँ

मेरे बस का ना पूछो
सुबह सुबह सफ़ेद कागज़ को पढके
नाक सिघोड़ने की हिम्मत है
क्या करू आज़ाद हूँ

अभी अभी एक दुकान देखी
मेरे भाई की ही है
सिखाया मैंने ही था ...
अगली कैसे बनानी है
क्या करू आज़ाद हूँ

लटकते रंगों के पट्टो से कुछ याद आता है
घरवालो ने कुछ मंगाया था
क्या जाना उसी दुकान पड़ेगा
नहीं ...कुछ.. कंही और से ले आऊंगा
जिसकी हकीक़त का पता न हो
क्या करू आज़ाद हूँ

जो कल आया था एक पडोसी
सीना तान के घर दिखाया
कोने में पड़ी मिटटी का जो पूछा ..
कहा जाना इसी में है, देख देख के..
शौक है मुझे याद रखने का
क्या करू आज़ाद हूँ

उसे जोर जोर से बताया
रहते हुई कई साल हो गए
जगह से मुझे प्यार हो गया ...
बोलती चीजों को बदलने का दिल नहीं करता
क्या करू आज़ाद हूँ

अब सोचा है नया रंग करवाऊंगा
एक ने टोका, जब इत्ते तक नहीं तो अब क्यूँ
बात वाजिब लगी, मिटटी को फिर देखा
फिर मौत याद आ गयी ...
क्या करू आज़ाद हूँ

छत से कभी पानी टपकता है
धोती वाले की आस का असर है
मौसमी बारिश को भी अब कोसता हूँ..
खैर चलो थोड़ी मिटटी मेरी भी बह जाती है
बचे कीचड़ से ठंडी हवा लग जाती है
क्या करू आज़ाद हूँ

अजब लगता है बच्चों को देख
बेफिक्र आँगन में खेलते रहते है
मिटटी हो पानी हो धुप को भी सेकते रहते है
रोब मारा.. मेरे घर का जो एक दिन
चले गए कही और, अब याद आती है
क्या करू आज़ाद हूँ

पास की संगीत लहरियों को सुन
मुझको भी रंग रास आने लगा
सही है ..कुछ समय आनंद को भी देना चाहिए
चूल्हे के पास बिजली का तार लगाने लगा
क्या करू आज़ाद हूँ

कई बार वक्त बीत जाता है
उन बहुतो को सोचते हुए
जो मेरे साथ में ही रहते है
कुछ जो अच्छे है, और कुछ वो...
जिन्हें वो अच्छे...बुरा बताते है
क्या करू आज़ाद हूँ

घर में चल पड़ी है कई दरारे
पास में वो बुरे शायद कुछ करते है
नहीं मेरी दिवार तो मजबूत है
उन्हें बता दूंगा मैं अब...
की उनकी कितनी कमज़ोर है
क्या करू आज़ाद हूँ

बहुत बताया तुमको और सुनो
मेरा घर तो एक छोटा सा कमरा है..
उसी की बात कर रहा था..
एक बड़े घर के लिए तो कई कमरे बेचने पड़ते है !
क्या करू आज़ाद हूँ !


...
Jai Hind
paras
15 Aug 2010

Wednesday, May 19, 2010

मनु मानस

आँखों के बंद दायरे में
कोई अहसास सा ना है
बस एक मुस्कान की चमक
दिल में घर कर जाती है...

जब मेरी परछाई मुझसे घबराती है
एक गुम्बद सर पे आ बनता है
इतना बड़ा इतना विशाल
फिर सूरज की तपन मिट जाती है ...
परछाई नहीं, उसकी शीतल मिल जाती है

आती हुई आंधियों के डर से
जब घबरा के आंखे बंद कर लेता हूँ
एक नरम मुस्कान बारिश बन आती है
फिर आंखे खुली होती है बहती हुई आंधी में
बरसी हुई रेत ... एक महक बन जाती है

आते जाते बवंडरो में डर लगता है
उनसे मिलके खुद की हस्ती गुम ना हो जाए
पकड़ के उसका सहारा, वही रहता हूँ बनके
खुद एक बवंडर, फिर कितने आये जाए...
घुमाव कितने घुरीले, खुद एक लकीर बन जाती है ।

.. पारस

Thursday, December 31, 2009

ओझल भ्रम

रहेगी दुनिया यही... भ्रम का कहना
खुद में होके, भ्रम में होके
असल लगे... जीले उतना उतना...
और औरों से होके, उनका जो मिले
मिलाके उसे, खुद को बुनना
धीरे धीरे अपनी एक डोर बन जाएगी
भ्रम में ही सही जिन्दगी....... कुछ तो कह जाएगी ।

डर भी हरदम साथ रहता है
कभी किसी से अपने आप लगता है
स्वयं की परिभाषा कम पड़ जाती है
डर उसी कमी की छाप चढ़ता है
सुखा रंग पानी में मिलके जैसे चढ़ आये
ऐसा ही कुछ सुखा मन के कोने में रह जाये
हल्की सी हवा काफी है... फिर मत सोचो उसे...
बस कोरे मन पर लिखना अब रह जायेगा
लिखना वहां कुछ ऐसे.... तो डर अपने आप उड़ जायेगा


Happy New Year..
..paras

Tuesday, November 10, 2009

सृजन

खूब जाता हूँ गहराई तक
क्या फायदा साथ ना रोशनी
इस बार वापिस आया हूँ
लेकर जाऊंगा, बस उतनी
जिस से रोशन हो जाए
वो गहरा गर्त जिसमें जाना होगा ।

मिलती है खूब परछाइयाँ मुझे
संग मेरी चलती है ख़ुद मेरी
हर वक्त ताकती है बिन आँखों के अपलक
जहाँ जितना चलूँगा साथ चलेगी..
ना चाहूँ.. तो अंधेरे में भी चलना होगा !

खूब बिखेरा है ख़ुद को यहाँ
अब टुकड़े ख़ुद बोलतें हैं जोड़ दो हमें
समेटने की मेरी ये कोशिश
कटिबद्ध परन्तु कुछ मिल नही रहें
शायद कुछ ... या एक जो किसी और के पास होगा !

पहुँच यहाँ अब मैं सोचता हूँ
कितना आसान था सब करना जो किया
मुश्किल अब भी वही है
पर पहुँच वहां , जहाँ अब चाहता हूँ
शायद फिर यही सोचूंगा !

साथ मेरे कौन है... कोई साबुत ??
नहीं ... वो टुकड़े जो मेरे है
समक्ष बिखरे हुए .... हर एक की कहानी है
अब भी जो सोचूं, ना कोई आने वाला
समेटना भी ख़ुद मुझे होगा !

अन्दर की परिभाषा भी कहती है बदलो मुझे
बड़ा मुश्किल है हर बार , बार बार
कुछ ऐसा बदलना जो फिर बदलेगा
क्यों न कुछ ऐसा बनाऊं
जो स्वयं पर हो, ना किसी साबुत पर होगा !

तब उन चंद टुकडों की संग शक्ति मिलेगी
वो मेरे आईने है, अलग अलग ...
जब मेरे साथ होंगे , तो हर दम पास होंगे
सब कुछ कर दूंगा, सोचा था जो चाहा था
फिर वो साबुत इस बिखरे को आन मिलेगा !

बड़ा मुश्किल होता है, संग सब साथ ले चलना
सब यही छोड़ रहा हूँ, कुछ ना जाएगा... खैर
कुछ एक तो हर वक्त है, जिन्हें मैं ख़ुद बना दूँ
मेरी कला मेरी परछाई से बढ़कर है
न मांगे रोशनी, बस एक अधीर सकल मन होगा !

जब जो करूँ , सोचूं की वो मेरा है
किसी को ना देखूं, क्योंकि ये मेरा है
जैसे तैसे ऐसे सोचूं की मेरा है
फिर जब सब बन जाएगा ..... तब रहना सदा ही मेरा है !

..पारस

Thursday, August 20, 2009

Likh de Mujhe ...

देखा कोई खाली पन्ना
खूब उतारा मैंने लिख
सोचूं मैं ख़ुद हूँ कोरा
मेरा बिम्ब नक़ल हो जैसे
अब मिले कोई ऐसा
जो लिख दे मुझे ...

खामोश मैं रहूँगा
कभी कुछ ना कहूँगा
मेरी जबान वो आंखे
देखे और कह जाए
वो लफ्ज़ जो अनकहे है
और बस लिख दे मुझे ।

करीने से सजी है यंहा
कांच की ये टुकडियां
खुब चमक ही चमक
थोड़ा ऊपर से जो गिरे
वो टुकड़े और थोडी छनक
हु मैं भी अब और हमेशा बिखरा
हो जो समेटे और लिख दे मुझे।

प्यास भी अजीब होती है
लगे तो नाश करती है
बुझी तो मीठी कयास बनती है
वो ओस की बूंद जो रहे
हर तिरछी तीखी कोर पे
जो उतरे तो लिख दे मुझे।

गुमराह हो अंधेरे मैं
भटक के जो घूमता हूँ
खूब रौशनी है मेरे पास
क्यों करूँ पता है कंहा मुड़ना
वो आए और मोड़ बदल दे
रौशनी हो और लिख दे मुझे।

आस के गीत जो गाऊं
क्या सोच हो गई ऐसी
सोचूं कोई जोड़ ना बांधू
फिर भी मचल जाता हूँ
हर आशा का निर्णय होता है
पर धीरज की डोर मैं
मुझे बांधे और लिख दे मुझे।

मेरी पीडा ना कोई नयी
ऐसी जैसे औरों की पीर मैं
जैसे मैं तकूँ वो भी ताकें
सोचे उसे जो उनमे झांके
नही है तो बनाये उसे जाके
वो जो सब हर ले और लिख दे मुझे।

सुख के कंठ हार गए
शायद अब कुछ ना मांगे
गीत वो जो कभी थे सुरीले
बिन साज मैं क्या गाऊं
खोजु वो राग जो यंहा है
बस ताल दे और लिख दे मुझे

...पारस

Monday, July 6, 2009

मेरी पाठशाला (अपेक्षा)

इच्छा मेरी, दुखों की जननी
सीख के मैंने, कर के जानी
धुप में खिले, रंगों की रानी
इच्छा करूँ, मेहनत से पाऊ

बिन समय, जब जो सोचूं
कमजोर मैं, किस्मत कोसु
तोड़ अपेक्षाएं, खड़ा होके
तिनका तिनका, गढ़ता जाऊँ

जब सोचा, लालसा को पकड़ा
मेरा बंधन, मुझी से अकडा
इतना भोला, कभी ना जाना
अब जब सोचा, तो खुल जाऊँ

अपेक्षा मेरी, मैं जानू
करू मैं, भरू ही मैं
किया जिससे, वो क्या ले
तोडके उस से, मुझ को बनाऊ

मुक्त विधा में, कला आएगी
असंभव काम, कर वो जायेगी
विधा मेरी, मेरे अन्दर
खूब सोचा, अब कोर ही जाऊँ

शंका सबकी, इतनी छोटी
चींटी जैसी, सूंड में डोले
छींक डालू, तीव्र वेग से
जब मिटे, आशा भर जाऊ

जो कुछ न होगा, भरूँगा क्या
जीवन मिला, और अपेक्षा क्या
मैं एकल, सब को समेट
केवल ज्ञान, विरल हो जाऊँ

सबकी अभिलाषा, गवाक्ष खोले
जितना अन्दर, वही ढप डाले
शंका सबकी, पूरण काज में
छोड़ अपेक्षा, कर्म को जाऊ..

paras...