Wednesday, November 12, 2008

Mujhe Azad Karo..

मेरी बगिया में एक फूल खिलता है
क्या कहूँ हर पल जो सुकून मिलता है

महक जो बहती रहे उसकी हवा के संग
चलता चलूँ मदमस्त वहीं बन मद पतंग

काश मैं वो कीट बनूँ जो हर पल आजाद है
उड़ता हुआ जो जा बने जहाँ उसकी सुगंध आज है

मेरे विचारों की एक समीक्षा है ये कुसुम
बस मेरी मुस्कुराहट मैं बिखरे ये मासूम

बिखरी हुई महक के कितने ही पक्ष गुप्त है
कैसे रहूँगा इसके बिना जब और जहाँ ये लुप्त है

बगिया कितनी बड़ी है जहाँ और भी महक रहे
पर इस महक की मिठास में मेरा हर पल रहे

दूर जब था तो केवल देखकर खुश न था
इसी कोमल सामीप्य के लिए कितना आतुर था

अब जब इन हथेलियों के बीच वो कोमल अहसास है
तो क्या, अन्तिम पंखुडी बची हुई मेरे पास है
है तो मुरझाई हुई पर मेरे लिए कुछ खास है
शायद नयन बंद करने है और वही फूल मेरे पास है ..........