मैंने कागज़ पे लिखा था अपना बचपन
आज वही रुपहले कागज़ लिए बेठा हूँ
स्याही की औकात आज समझता हूँ
वो टूटी दवात में डुबो के लिखे थे
नयी कलम हाथ में लिए बेठा हूँ
देखे दिखाए थे कंकड़ जैसे अक्षर
मैं जो बोलूं , आज कोई लिख भी दे,
फिर भी अज्ञात लिए बेठा हूँ
Monday, December 26, 2011
Thursday, May 12, 2011
सोचा तो सुलग पड़ा ऐसे
मेरी साख कंहा तक जाती है
मुझे खुद नहीं पता
पर एक तलब किसी को जताने की
खुद को खुद तक समेट ले आती है
बेबुनियाद तरीके है मेरे
तलब और नासमझी भर देती है
खुश्क भीगना चाहता है यंहा,
पर भीगे को सूखे का अहसास नहीं
वाजिब चीजों के फ़लसफ़े मुझी तक है
गनीमत है उनको कभी कहा नहीं
मेरे कहने से कुछ नहीं बदलता
खुश्क भिगोना चाहे भी तो, मैं तो भीगा ही हूँ
गहरे राज़ दिल में दबे ही रहते है
निकलते निकलते उड़ते पंछी से हो जाते है
मैं क्या कहूँ, कहने की हालत नहीं
खुश्की मिटती नहीं, और वो बरसता नहीं
अपनी शख्सियत कितनी महँगी होती है
मैं तो कहूँगा बेच दो, जितनी भी हो
अगर अभी भी खुश्क है, तो बिक जायेगी
किसी ने सही में खरीदना चाहा तो..
बिकने ही नहीं जायेगी
बची चीजों को तराजू में तोलने का मतलब नहीं
उनसे कुछ वक़्त बच जाए तो रख लो
वो लगी हुयी जंग जितनी ही कीमती है
अभी भी तराजू ताक में रखा है तो
अगली बार लोहा ही न लेना
..paras
मुझे खुद नहीं पता
पर एक तलब किसी को जताने की
खुद को खुद तक समेट ले आती है
बेबुनियाद तरीके है मेरे
तलब और नासमझी भर देती है
खुश्क भीगना चाहता है यंहा,
पर भीगे को सूखे का अहसास नहीं
वाजिब चीजों के फ़लसफ़े मुझी तक है
गनीमत है उनको कभी कहा नहीं
मेरे कहने से कुछ नहीं बदलता
खुश्क भिगोना चाहे भी तो, मैं तो भीगा ही हूँ
गहरे राज़ दिल में दबे ही रहते है
निकलते निकलते उड़ते पंछी से हो जाते है
मैं क्या कहूँ, कहने की हालत नहीं
खुश्की मिटती नहीं, और वो बरसता नहीं
अपनी शख्सियत कितनी महँगी होती है
मैं तो कहूँगा बेच दो, जितनी भी हो
अगर अभी भी खुश्क है, तो बिक जायेगी
किसी ने सही में खरीदना चाहा तो..
बिकने ही नहीं जायेगी
बची चीजों को तराजू में तोलने का मतलब नहीं
उनसे कुछ वक़्त बच जाए तो रख लो
वो लगी हुयी जंग जितनी ही कीमती है
अभी भी तराजू ताक में रखा है तो
अगली बार लोहा ही न लेना
..paras
कल फिर
होश की आवाम मैं बेनकाब होते है कई किस्से,
बेहोश दब जाते कुछ, जो कभी महसूस होते है,
अनजान हवा का रुख, दूर कंही से जो निकला है ,
पास आते आते और बेतरतीब सा हो जाता है,
इस दफा , और क्या उस दफा .....
दिल तो कल भी वही करेगा, जितना उसने जाना है
Thursday, April 14, 2011
एक बात कह दूँ
कभी जो कुछ आम थे
अब याद बन जायेंगे
सूखे पत्तो की तरह
गिरे जमीन पे ..
पड़े पड़े कुछ बात कह जायेंगे
मौसम के इस पल में अब वो पतझड़ है
अगले पतझड़ तक कुछ मौसम
और गुज़र जायेंगे ..
तनिक फिर अगर जो गुज़रा तो
गुज़र के वो ज़माना बन जायेंगे
उतरी टहनियों से कभी प्यार ना था
वो बहते रास्तो को रोका करती थी
वहीँ कंही चलते चलते
आज कुछ मुझे अजीब सा लगा
इन्ही रास्तो पे बीते है
कुछ एक ऐसे पल ..
जिनके जाने का यकीन भी ना था
अब उतरती हुई ये हवा जैसे
पैरो को छु छुके जाती है
मौसम की अजीब हरकतों पे
मैं खूब झल्लाया हूँ ..
इस जमी हुयी बर्फ की चादर में
रौंदती हुयी आंधी की याद हो आती है
शायद मेरी फितरत में है ऐसा कुछ
गुज़रा वो कुछ आसान सा लगता है
मगर सोच एक बार के लिए युहीं थम जाती है ...
कंही उन सब में कुछ अच्छा तो था
डूबती हुई ये सांझ रोज आती है
आज सूरज के थमते हुए पीले रंग में कुछ है ..
कुछ पुरानी चादरे ...जिनको ढक के
खूब कोसा है .. इन्हीं शामों को
खुद को हमेशा एक भीड़ से घिरा माना है
वो चेहरे जो हर वक़्त ख्याल तोड़ जाते है
नहीं देखता था चलते चलते ..
आज क्यूँ लगा की कुछ कहना उनको भी बाकी था
मेरी फितरत फिर रंग लाती है
सोचा की जाते हुए कुछ करिश्मा कर दूँ
जिनसे कभी नजरो की बात नहीं हुयी..
मुलाकात कर आज कुछ कह दूँ
यकीन किसी चीज़ में इतना बस जाता है
अच्छा हो ..बुरा हो..अपने से जुड़ जाता है
बीती बातों का क्या .. बीतती ही रहती है
मैं इतना जीया , बीतना कम सा लगा
कुछ चीज़े बस यूँही मिल जाती है
मिलने पे उनके .. कभी सवाल नहीं होते
हिस्सा बन जाती है वो , बिना किसी गौर के
वक़्त का पाया बेठा... बेठा ... मौज उड़ा ही देता है
भारी भरकम बोझों तले दबता आया हूँ
रुकते रुकते इतना वक़्त बिता दिया
कल सुबह इन्हीं गलियों से निकलते वक़्त ..
सिर्फ मेरा सामान ही भारी ना होगा
कुछ ऐसा जिसे कहने की जरुरत नहीं
कुछ ऐसे जिन्हें कहने की जरुरत थी ..
वो जानते है ... मैं जानता हूँ ...
बहकती रंगीन जिन्दगी की पिटारों में
कुछ बहारें ... साथ में थी
और अब आगे कुछ अलग होंगी ..
बस यूँही सोचा की ...
जाते हुए लम्हों को
एक बात कह दूँ .
..paras
अब याद बन जायेंगे
सूखे पत्तो की तरह
गिरे जमीन पे ..
पड़े पड़े कुछ बात कह जायेंगे
मौसम के इस पल में अब वो पतझड़ है
अगले पतझड़ तक कुछ मौसम
और गुज़र जायेंगे ..
तनिक फिर अगर जो गुज़रा तो
गुज़र के वो ज़माना बन जायेंगे
उतरी टहनियों से कभी प्यार ना था
वो बहते रास्तो को रोका करती थी
वहीँ कंही चलते चलते
आज कुछ मुझे अजीब सा लगा
इन्ही रास्तो पे बीते है
कुछ एक ऐसे पल ..
जिनके जाने का यकीन भी ना था
अब उतरती हुई ये हवा जैसे
पैरो को छु छुके जाती है
मौसम की अजीब हरकतों पे
मैं खूब झल्लाया हूँ ..
इस जमी हुयी बर्फ की चादर में
रौंदती हुयी आंधी की याद हो आती है
शायद मेरी फितरत में है ऐसा कुछ
गुज़रा वो कुछ आसान सा लगता है
मगर सोच एक बार के लिए युहीं थम जाती है ...
कंही उन सब में कुछ अच्छा तो था
डूबती हुई ये सांझ रोज आती है
आज सूरज के थमते हुए पीले रंग में कुछ है ..
कुछ पुरानी चादरे ...जिनको ढक के
खूब कोसा है .. इन्हीं शामों को
खुद को हमेशा एक भीड़ से घिरा माना है
वो चेहरे जो हर वक़्त ख्याल तोड़ जाते है
नहीं देखता था चलते चलते ..
आज क्यूँ लगा की कुछ कहना उनको भी बाकी था
मेरी फितरत फिर रंग लाती है
सोचा की जाते हुए कुछ करिश्मा कर दूँ
जिनसे कभी नजरो की बात नहीं हुयी..
मुलाकात कर आज कुछ कह दूँ
यकीन किसी चीज़ में इतना बस जाता है
अच्छा हो ..बुरा हो..अपने से जुड़ जाता है
बीती बातों का क्या .. बीतती ही रहती है
मैं इतना जीया , बीतना कम सा लगा
कुछ चीज़े बस यूँही मिल जाती है
मिलने पे उनके .. कभी सवाल नहीं होते
हिस्सा बन जाती है वो , बिना किसी गौर के
वक़्त का पाया बेठा... बेठा ... मौज उड़ा ही देता है
भारी भरकम बोझों तले दबता आया हूँ
रुकते रुकते इतना वक़्त बिता दिया
कल सुबह इन्हीं गलियों से निकलते वक़्त ..
सिर्फ मेरा सामान ही भारी ना होगा
कुछ ऐसा जिसे कहने की जरुरत नहीं
कुछ ऐसे जिन्हें कहने की जरुरत थी ..
वो जानते है ... मैं जानता हूँ ...
बहकती रंगीन जिन्दगी की पिटारों में
कुछ बहारें ... साथ में थी
और अब आगे कुछ अलग होंगी ..
बस यूँही सोचा की ...
जाते हुए लम्हों को
एक बात कह दूँ .
..paras
Thursday, March 17, 2011
वो बरसती तो है
बरसती रैना में
कुछ तरसते ख्वाब से थे
महके महके
सुर्ख गुलाब से थे
कागज़ की तरह
उड़ने को तैयार
मदिरा पिला
बहकाने को ,
आमाद से थे
ऐसे जो देखा तो
कुछ ऐसे जाना की
आज तो भीग ही जाऊँगा
भीगा तो सही, पर
वो ही बरसने को ,
तैयार न थे
कितनो को कब कब
जाके कहूँ,
की ख्वाबो को जीते वक़्त,
रैना में भीगते वक़्त,
कैसा लगता होगा
जब खुद ही जताने को,
तैयार न थे
कब कब खुद को जा बतलाऊ
की ख्वाबो को ऐसे नहीं जीते,
फिर बरसती रैना में तो,
सब भीग जाते होंगे,
फिर , मेरे लिए ही क्यों
सवाल तैयार थे
ये तरसाती रैना
आ आके जाती है
बोले तो गरज सुनु
बिल बोले बस मंडराकर
क्या समझती वो रैना
पूछ पूछ के हार जाये कोई
ऐसे जैसे इस बार
चमकी जो बिजली
की अब बरसुंगी
की अब बरसुंगी,
बेहतर खुद को चमक में
भंजित कर लेना
लिपट के ठंडी हवा
कुछ खास तब भी न बोलेगी
मैं कहता हूँ
आज ही की तो बात है
पर उसे लगता है
की आज और फिर कल
इस बदली को ला देना
फिर सवाल एक
की जितने दिन ,
मैं इंतज़ार में
इतने दिन ये किसमे गुम,
शायद,
बदली बनते मदहोश रहती होगी
या, जिस पे बरसना है,
वो बहुतेरे है
ऐसे जैसे, अगर मैं न हूँ
तो भी कुछ खास न लेना
क्रम का अंत तो तब संभव है
जो कोई कुछ सिखा के जाता
बस वही..
बदली बदल बदल के छाती रही
मैं नीचे मंडराता रहा
समझ के कुछ,
इच्छा पे कटार चलायी,
मुरझे लिए गुलाब बस मुड़ा सा था,
शायद उसे लगा होगा
मेरे तांडव अब देखेगा कौन
रोज़ रोज़ वो मंडराती थी
बिजली जो चमकाती थी
शायद कुछ सोचा होगा उसने
दो मोटे मोटे छींटे
एक सर पे और
आधा एक पाव पे
तब गिर आन पड़े थे
न समझो की,
मैं रुका था फिर..
शायद बरसती रैना में
वो मेरे सुखे ख्वाब
कुछ ऐसे परिभाषित थे
..paras
कुछ तरसते ख्वाब से थे
महके महके
सुर्ख गुलाब से थे
कागज़ की तरह
उड़ने को तैयार
मदिरा पिला
बहकाने को ,
आमाद से थे
ऐसे जो देखा तो
कुछ ऐसे जाना की
आज तो भीग ही जाऊँगा
भीगा तो सही, पर
वो ही बरसने को ,
तैयार न थे
कितनो को कब कब
जाके कहूँ,
की ख्वाबो को जीते वक़्त,
रैना में भीगते वक़्त,
कैसा लगता होगा
जब खुद ही जताने को,
तैयार न थे
कब कब खुद को जा बतलाऊ
की ख्वाबो को ऐसे नहीं जीते,
फिर बरसती रैना में तो,
सब भीग जाते होंगे,
फिर , मेरे लिए ही क्यों
सवाल तैयार थे
ये तरसाती रैना
आ आके जाती है
बोले तो गरज सुनु
बिल बोले बस मंडराकर
क्या समझती वो रैना
पूछ पूछ के हार जाये कोई
ऐसे जैसे इस बार
चमकी जो बिजली
की अब बरसुंगी
की अब बरसुंगी,
बेहतर खुद को चमक में
भंजित कर लेना
लिपट के ठंडी हवा
कुछ खास तब भी न बोलेगी
मैं कहता हूँ
आज ही की तो बात है
पर उसे लगता है
की आज और फिर कल
इस बदली को ला देना
फिर सवाल एक
की जितने दिन ,
मैं इंतज़ार में
इतने दिन ये किसमे गुम,
शायद,
बदली बनते मदहोश रहती होगी
या, जिस पे बरसना है,
वो बहुतेरे है
ऐसे जैसे, अगर मैं न हूँ
तो भी कुछ खास न लेना
क्रम का अंत तो तब संभव है
जो कोई कुछ सिखा के जाता
बस वही..
बदली बदल बदल के छाती रही
मैं नीचे मंडराता रहा
समझ के कुछ,
इच्छा पे कटार चलायी,
मुरझे लिए गुलाब बस मुड़ा सा था,
शायद उसे लगा होगा
मेरे तांडव अब देखेगा कौन
रोज़ रोज़ वो मंडराती थी
बिजली जो चमकाती थी
शायद कुछ सोचा होगा उसने
दो मोटे मोटे छींटे
एक सर पे और
आधा एक पाव पे
तब गिर आन पड़े थे
न समझो की,
मैं रुका था फिर..
शायद बरसती रैना में
वो मेरे सुखे ख्वाब
कुछ ऐसे परिभाषित थे
..paras
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