Thursday, December 31, 2009

ओझल भ्रम

रहेगी दुनिया यही... भ्रम का कहना
खुद में होके, भ्रम में होके
असल लगे... जीले उतना उतना...
और औरों से होके, उनका जो मिले
मिलाके उसे, खुद को बुनना
धीरे धीरे अपनी एक डोर बन जाएगी
भ्रम में ही सही जिन्दगी....... कुछ तो कह जाएगी ।

डर भी हरदम साथ रहता है
कभी किसी से अपने आप लगता है
स्वयं की परिभाषा कम पड़ जाती है
डर उसी कमी की छाप चढ़ता है
सुखा रंग पानी में मिलके जैसे चढ़ आये
ऐसा ही कुछ सुखा मन के कोने में रह जाये
हल्की सी हवा काफी है... फिर मत सोचो उसे...
बस कोरे मन पर लिखना अब रह जायेगा
लिखना वहां कुछ ऐसे.... तो डर अपने आप उड़ जायेगा


Happy New Year..
..paras

Tuesday, November 10, 2009

सृजन

खूब जाता हूँ गहराई तक
क्या फायदा साथ ना रोशनी
इस बार वापिस आया हूँ
लेकर जाऊंगा, बस उतनी
जिस से रोशन हो जाए
वो गहरा गर्त जिसमें जाना होगा ।

मिलती है खूब परछाइयाँ मुझे
संग मेरी चलती है ख़ुद मेरी
हर वक्त ताकती है बिन आँखों के अपलक
जहाँ जितना चलूँगा साथ चलेगी..
ना चाहूँ.. तो अंधेरे में भी चलना होगा !

खूब बिखेरा है ख़ुद को यहाँ
अब टुकड़े ख़ुद बोलतें हैं जोड़ दो हमें
समेटने की मेरी ये कोशिश
कटिबद्ध परन्तु कुछ मिल नही रहें
शायद कुछ ... या एक जो किसी और के पास होगा !

पहुँच यहाँ अब मैं सोचता हूँ
कितना आसान था सब करना जो किया
मुश्किल अब भी वही है
पर पहुँच वहां , जहाँ अब चाहता हूँ
शायद फिर यही सोचूंगा !

साथ मेरे कौन है... कोई साबुत ??
नहीं ... वो टुकड़े जो मेरे है
समक्ष बिखरे हुए .... हर एक की कहानी है
अब भी जो सोचूं, ना कोई आने वाला
समेटना भी ख़ुद मुझे होगा !

अन्दर की परिभाषा भी कहती है बदलो मुझे
बड़ा मुश्किल है हर बार , बार बार
कुछ ऐसा बदलना जो फिर बदलेगा
क्यों न कुछ ऐसा बनाऊं
जो स्वयं पर हो, ना किसी साबुत पर होगा !

तब उन चंद टुकडों की संग शक्ति मिलेगी
वो मेरे आईने है, अलग अलग ...
जब मेरे साथ होंगे , तो हर दम पास होंगे
सब कुछ कर दूंगा, सोचा था जो चाहा था
फिर वो साबुत इस बिखरे को आन मिलेगा !

बड़ा मुश्किल होता है, संग सब साथ ले चलना
सब यही छोड़ रहा हूँ, कुछ ना जाएगा... खैर
कुछ एक तो हर वक्त है, जिन्हें मैं ख़ुद बना दूँ
मेरी कला मेरी परछाई से बढ़कर है
न मांगे रोशनी, बस एक अधीर सकल मन होगा !

जब जो करूँ , सोचूं की वो मेरा है
किसी को ना देखूं, क्योंकि ये मेरा है
जैसे तैसे ऐसे सोचूं की मेरा है
फिर जब सब बन जाएगा ..... तब रहना सदा ही मेरा है !

..पारस

Thursday, August 20, 2009

Likh de Mujhe ...

देखा कोई खाली पन्ना
खूब उतारा मैंने लिख
सोचूं मैं ख़ुद हूँ कोरा
मेरा बिम्ब नक़ल हो जैसे
अब मिले कोई ऐसा
जो लिख दे मुझे ...

खामोश मैं रहूँगा
कभी कुछ ना कहूँगा
मेरी जबान वो आंखे
देखे और कह जाए
वो लफ्ज़ जो अनकहे है
और बस लिख दे मुझे ।

करीने से सजी है यंहा
कांच की ये टुकडियां
खुब चमक ही चमक
थोड़ा ऊपर से जो गिरे
वो टुकड़े और थोडी छनक
हु मैं भी अब और हमेशा बिखरा
हो जो समेटे और लिख दे मुझे।

प्यास भी अजीब होती है
लगे तो नाश करती है
बुझी तो मीठी कयास बनती है
वो ओस की बूंद जो रहे
हर तिरछी तीखी कोर पे
जो उतरे तो लिख दे मुझे।

गुमराह हो अंधेरे मैं
भटक के जो घूमता हूँ
खूब रौशनी है मेरे पास
क्यों करूँ पता है कंहा मुड़ना
वो आए और मोड़ बदल दे
रौशनी हो और लिख दे मुझे।

आस के गीत जो गाऊं
क्या सोच हो गई ऐसी
सोचूं कोई जोड़ ना बांधू
फिर भी मचल जाता हूँ
हर आशा का निर्णय होता है
पर धीरज की डोर मैं
मुझे बांधे और लिख दे मुझे।

मेरी पीडा ना कोई नयी
ऐसी जैसे औरों की पीर मैं
जैसे मैं तकूँ वो भी ताकें
सोचे उसे जो उनमे झांके
नही है तो बनाये उसे जाके
वो जो सब हर ले और लिख दे मुझे।

सुख के कंठ हार गए
शायद अब कुछ ना मांगे
गीत वो जो कभी थे सुरीले
बिन साज मैं क्या गाऊं
खोजु वो राग जो यंहा है
बस ताल दे और लिख दे मुझे

...पारस

Monday, July 6, 2009

मेरी पाठशाला (अपेक्षा)

इच्छा मेरी, दुखों की जननी
सीख के मैंने, कर के जानी
धुप में खिले, रंगों की रानी
इच्छा करूँ, मेहनत से पाऊ

बिन समय, जब जो सोचूं
कमजोर मैं, किस्मत कोसु
तोड़ अपेक्षाएं, खड़ा होके
तिनका तिनका, गढ़ता जाऊँ

जब सोचा, लालसा को पकड़ा
मेरा बंधन, मुझी से अकडा
इतना भोला, कभी ना जाना
अब जब सोचा, तो खुल जाऊँ

अपेक्षा मेरी, मैं जानू
करू मैं, भरू ही मैं
किया जिससे, वो क्या ले
तोडके उस से, मुझ को बनाऊ

मुक्त विधा में, कला आएगी
असंभव काम, कर वो जायेगी
विधा मेरी, मेरे अन्दर
खूब सोचा, अब कोर ही जाऊँ

शंका सबकी, इतनी छोटी
चींटी जैसी, सूंड में डोले
छींक डालू, तीव्र वेग से
जब मिटे, आशा भर जाऊ

जो कुछ न होगा, भरूँगा क्या
जीवन मिला, और अपेक्षा क्या
मैं एकल, सब को समेट
केवल ज्ञान, विरल हो जाऊँ

सबकी अभिलाषा, गवाक्ष खोले
जितना अन्दर, वही ढप डाले
शंका सबकी, पूरण काज में
छोड़ अपेक्षा, कर्म को जाऊ..

paras...

Saturday, April 4, 2009

मेरी पाठशाला

मैं शांत, बस झांक
मैं निर्मल, अनंत भान
अन्दर गहरा , बाहर कोरा
मैं जीयू , यही कोरा
अनंत अपार फिर भी थोड़ा !

मैं जागूँ , या सो जाऊँ
जब सोचूं , तो खो जाऊं
खुल ऐसे, साज के जैसे
जब निकलू, चमक बन जाऊँ

तेज भी, मंद भी ना
बस प्यारा, मन को सोखे
जब मिलूं, तो मिलकर ऐसे
उसी का जैसे, बस घुल जाऊँ

प्रेम देखा, चल चलूँ
आवेग झोंका, सह चलूँ
मैं पावन, मैं निर्मल
जो कठोर, कोमल बन जाऊँ

शब्द ऐसे, फूल हो जैसे
कोमल पंख, पखेरू ऐसे
वो उडे, तो अभिलाषा आए
कोशिश करूँ, मैं उड़ जाऊँ

शंख नाद, कोरु जो आज
बीता दिया, गया वो आज
आएगा क्या, सोच लूँ आज
मनन ऐसा, कर कर जाऊँ

एक पल, और हो एक विचार
दूजा क्या, जानूं एक औजार
मन क्या, एक कोरी पट्टी
सफ़ेद चाक, मैं भर जाऊँ

घोर घटा, जब छायेगी
देखते -२ , बारिश आएगी
अँधेरी -२ , चमके बिजली
वो तो भ्रम, समझता जाऊँ

लिखकर ऐसे, मैं सीखूं
सुनकर ऐसे, मैं सोचूं
जब तैयार, तब चलूँ
फिर प्रयास , करता जाऊँ


मैं तरंग, तीव्र प्रचंड
देख किनारा, उछल उछल
और आगे, तो कोरी धुल
चलता चलूँ , ना रुक जाऊँ

बन सहारा, कुछ देकर
लिया तो सब, अब कुछ देकर
करके ऐसे, त्याग में जैसे
प्रेम तो उसमें, बस तर जाऊँ.....

..paras


Thursday, March 26, 2009

On My Own ....

सोचता हूँ आज फिर लिखूँ , बहुत दिनों बाद फिर कुछ सीखूं,
जब मैं प्रयत्न करता हूँ, तो सोचकर बहुत कुछ चलता हूँ,

मेरे हृदय में फिर भूचाल है, खैर चलता हूँ हरदम साथ लेकर
हो न हो कोई यहाँ, मैं चलूँगा ऐसे ही ,सम्भव सब साथ लेकर

विचारो की माया में उलझने से बेहतर नही विचार शुन्य होना
खैर उलझकर सुलझाने में ही छिपा शुन्य से अनंत होना

कड़ी धुप में बग्घी पगडण्डी पर चलती हुई, रेत के गुब्बार में
खांसते हुए उस को देखकर, मैं सोचता हूँ, रेत के गुब्बार से
कुछ फरक है, या नही , किसी को अहसास नही, क्यों सोचो तो
एक जो चले अन्दर, दोनों विचार शुन्य, एक धुल के अन्दर
एक तो चलता गया, एक जो सहता गया, आदत है सबको

मैंने पहले ही कहा था, ये तो सीखने के लिए लिखा था,
मिला न कोई तुक तो, क्या हुआ ऐसे ही तो सिखा था

लिखते हुए अगर कुछ भी न मिला तो क्या, विचार देख
बस लिखा और लिखा,शब्द मैं क्यों उलझे , विचार देख

मैं तो परिवर्तन की वकालत करता हूँ, कोई क्रांति नही,
बस सुलझन से परिभाषित करता हूँ, कोई भ्रान्ति नही

जब शुरू हो जायें तब मुश्किल इतनी सी, चलना तो होगा
मैंने भी पुनः पंक्तियों को देखा, यही सोचा, इनका अंत कहाँ होगा

कलम तो ऐसे ही चलती रहेगी, सोचते हुए भी सब सहती सहेगी
चलो केवल उसी का बलिदान लो, मिले संबल तो कहती रहेगी

कारवां में चलना एक ही दिशा में , मिलें हवाओं के कितने रुख
यूँही यंहा परिभाषाओ मैं उलझे रहें , तो जीवन का क्या सुख

भोग और उपयोग मैं बहुत फरक है, भोग तुम करो तो
उपयोग तुम करो तो, तुम्हारा ही रहेगा,फिर न तुम रहो तो

सबके साथ सफर में कितने है, मेरा रास्ता मुझे तय करना
मेरे रास्तें , थोड़ा तेज़ चलना होगा, जब अकेले ही चलना

कितना कुछ सिखा अभी, मंथन कर और कर दे सही
वो जो अब गलत है, और वो भी जो कभी न था सही

बनकर राही और रास्ता, सब तय कर लूँ अभी से, हाँ अभी से
प्रेम मिले तो त्याग सीखूं, त्याग हो तो प्रेम से करूँ, हाँ अभी से

भ्रमित मत हो बंधू, उलझन की इक डोर में ही सब कुछ समाया
तो सुलझाना शुरू कर अगर मेरे सिवा और किसी ने भी उलझाया

..paras





Wednesday, January 21, 2009

Feel Euphoria...

कर जतन हो सकेगा और तेरा ही होगा,
हाथ की लकीरे तो रह गई मुडी हुई,
मन तेरा गर सधा रहा तो,
जनम ये सफल होगा;

खोल कर मन का पिटारा स्वीकार कर द्वंद सारा,
उफन पड़ेगा शायद बह भी जाए,
इन आँखों के रस्ते, ....बहने दे पर,
फिर जीवन सरल होगा;

चलूं ही क्यों इतना बोझ लेकर,
जो ढोते कई और है, ढोने दो ,
मेरा क्या मैं तो ख़ुद एक बादल हूँ ,
गरजकर भलें ही बरसू...
पर रंग अब धवल होगा;

सोचने पर जो अभी अच्छा लगे,
बाद में कभी मन छलेगा,
मन तो बने बिगडे,
ज्ञान चक्षु हो तो, निर्णय अभी सरल होगा;

संकट में तो सब सोचे ,
मेरा चिंतन अनवरत रहे,
जब ऐसा मंथन रहा तो ,
सर्वत्र सदैव परम होगा ।

..पारस