Thursday, April 14, 2011

एक बात कह दूँ

कभी जो कुछ आम थे
अब याद बन जायेंगे
सूखे पत्तो की तरह
गिरे जमीन पे ..
पड़े पड़े कुछ बात कह जायेंगे

मौसम के इस पल में अब वो पतझड़ है
अगले पतझड़ तक कुछ मौसम
और गुज़र जायेंगे ..
तनिक फिर अगर जो गुज़रा तो
गुज़र के वो ज़माना बन जायेंगे

उतरी टहनियों से कभी प्यार ना था
वो बहते रास्तो को रोका करती थी
वहीँ कंही चलते चलते
आज कुछ मुझे अजीब सा लगा

इन्ही रास्तो पे बीते है
कुछ एक ऐसे पल ..
जिनके जाने का यकीन भी ना था
अब उतरती हुई ये हवा जैसे
पैरो को छु छुके जाती है

मौसम की अजीब हरकतों पे
मैं खूब झल्लाया हूँ ..
इस जमी हुयी बर्फ की चादर में
रौंदती हुयी आंधी की याद हो आती है

शायद मेरी फितरत में है ऐसा कुछ
गुज़रा वो कुछ आसान सा लगता है
मगर सोच एक बार के लिए युहीं थम जाती है ...
कंही उन सब में कुछ अच्छा तो था

डूबती हुई ये सांझ रोज आती है
आज सूरज के थमते हुए पीले रंग में कुछ है ..
कुछ पुरानी चादरे ...जिनको ढक के
खूब कोसा है .. इन्हीं शामों को

खुद को हमेशा एक भीड़ से घिरा माना है
वो चेहरे जो हर वक़्त ख्याल तोड़ जाते है
नहीं देखता था चलते चलते ..
आज क्यूँ लगा की कुछ कहना उनको भी बाकी था

मेरी फितरत फिर रंग लाती है
सोचा की जाते हुए कुछ करिश्मा कर दूँ
जिनसे कभी नजरो की बात नहीं हुयी..
मुलाकात कर आज कुछ कह दूँ

यकीन किसी चीज़ में इतना बस जाता है
अच्छा हो ..बुरा हो..अपने से जुड़ जाता है
बीती बातों का क्या .. बीतती ही रहती है
मैं इतना जीया , बीतना कम सा लगा

कुछ चीज़े बस यूँही मिल जाती है
मिलने पे उनके .. कभी सवाल नहीं होते
हिस्सा बन जाती है वो , बिना किसी गौर के
वक़्त का पाया बेठा... बेठा ... मौज उड़ा ही देता है

भारी भरकम बोझों तले दबता आया हूँ
रुकते रुकते इतना वक़्त बिता दिया
कल सुबह इन्हीं गलियों से निकलते वक़्त ..
सिर्फ मेरा सामान ही भारी ना होगा

कुछ ऐसा जिसे कहने की जरुरत नहीं
कुछ ऐसे जिन्हें कहने की जरुरत थी ..
वो जानते है ... मैं जानता हूँ ...
बहकती रंगीन जिन्दगी की पिटारों में
कुछ बहारें ... साथ में थी
और अब आगे कुछ अलग होंगी ..

बस यूँही सोचा की ...
जाते हुए लम्हों को
एक बात कह दूँ .

..paras

Thursday, March 17, 2011

वो बरसती तो है

बरसती रैना में
कुछ तरसते ख्वाब से थे
महके महके
सुर्ख गुलाब से थे

कागज़ की तरह
उड़ने को तैयार
मदिरा पिला
बहकाने को ,
आमाद से थे

ऐसे जो देखा तो
कुछ ऐसे जाना की
आज तो भीग ही जाऊँगा
भीगा तो सही, पर
वो ही बरसने को ,
तैयार न थे

कितनो को कब कब
जाके कहूँ,
की ख्वाबो को जीते वक़्त,
रैना में भीगते वक़्त,
कैसा लगता होगा
जब खुद ही जताने को,
तैयार न थे

कब कब खुद को जा बतलाऊ
की ख्वाबो को ऐसे नहीं जीते,
फिर बरसती रैना में तो,
सब भीग जाते होंगे,
फिर , मेरे लिए ही क्यों
सवाल तैयार थे

ये तरसाती रैना
आ आके जाती है
बोले तो गरज सुनु
बिल बोले बस मंडराकर
क्या समझती वो रैना

पूछ पूछ के हार जाये कोई
ऐसे जैसे इस बार
चमकी जो बिजली
की अब बरसुंगी
की अब बरसुंगी,
बेहतर खुद को चमक में
भंजित कर लेना

लिपट के ठंडी हवा
कुछ खास तब भी न बोलेगी
मैं कहता हूँ
आज ही की तो बात है
पर उसे लगता है
की आज और फिर कल
इस बदली को ला देना

फिर सवाल एक
की जितने दिन ,
मैं इंतज़ार में
इतने दिन ये किसमे गुम,
शायद,
बदली बनते मदहोश रहती होगी

या, जिस पे बरसना है,
वो बहुतेरे है
ऐसे जैसे, अगर मैं न हूँ
तो भी कुछ खास न लेना

क्रम का अंत तो तब संभव है
जो कोई कुछ सिखा के जाता
बस वही..
बदली बदल बदल के छाती रही
मैं नीचे मंडराता रहा

समझ के कुछ,
इच्छा पे कटार चलायी,
मुरझे लिए गुलाब बस मुड़ा सा था,
शायद उसे लगा होगा
मेरे तांडव अब देखेगा कौन
रोज़ रोज़ वो मंडराती थी
बिजली जो चमकाती थी
शायद कुछ सोचा होगा उसने
दो मोटे मोटे छींटे
एक सर पे और
आधा एक पाव पे
तब गिर आन पड़े थे

न समझो की,
मैं रुका था फिर..
शायद बरसती रैना में
वो मेरे सुखे ख्वाब
कुछ ऐसे परिभाषित थे

..paras

Friday, December 17, 2010

कहीं ऐसे

कहीं ऐसे जाना
की दिल के कौने में कहीं जो सच्चाई छुपी है
वो सच्ची है...
उसी को लेके तराशने का मौका ढूढ रहा हूँ
मिली तो यकीन है ख़त्म न होगी
बस मिले तो सही

तलाश ही ऐसी है
भले ही नज़रे बंद कर के
अंधेरो में नज़ारे घूमता हूँ
रौशनी अन्दर की आवाज़ देती है
देखने को अँधेरे भी खूब है
फिर नहीं दिखी वो तो
सुन लूँगा उसे ..

यकीन जज्बात से पैदा होता है
खुदा का खुद पता नहीं है
बस सुना है की होता है
वो यकीन ना में करते है
और मैं होने में
फरक कुछ नहीं है
उन्हें बैठने में तसल्ली है
और मुझे ढूढने में

खुद तलाश का पता हो तो
असर जल्दी ख़त्म हो जाता है
कहते है की
वंहा पहुँच के जन्नत नसीब होती है
अब और क्या कहूँ
चला जा रहा हूँ
इतने में ही जन्नत का मेहराब
दिखाई जान पड़ता है

..paras

Thursday, November 4, 2010

आनंद

अधरों कहानी बात वो बोले
जब जब जाए फिर से टन्टोले
मद का क्या मैंने हर वक़्त साधा
बना आदी, छोड़ किनारे, बना अब आधा
जग सब दिलादे मैं जाऊ, अब मद को पाने
है कुछ नहीं . पर जब पी लू तब तब ले आऊ .. .

मद में हिलोर जो लागे
आनंद उपज खुद की ही लागे
जो हो लू ऐसे किसी पीड़ा से
हिलोर मिला मैं पी जाऊ
फिर दिवाली, फिर हो होली
रंग खेलु या फिर दिये जलाऊ .

शुभ दीपावली
॥ पारस ॥

Tuesday, November 2, 2010

ऐ मौला

दूर हरियाली में मेहनत करे, उस से धुल दो शब्द मांगे
हरों को वो आबाद करे, लौटा उसे ढाणी दे मौला !

रेत की सपाट चादर पे, हवाए रेंग रेंग चली गयी
अब मेरी नज़रे दौड़ती है, उस पे वो दो पाग बना दे मौला

जूनून विदा कर देता है, धरती आस लगा लेती है
अब तो खूब बरस भी गया, प्यासों को वापिस बुला ले मौला

उजड़े उजाड़ में आते है , बस देख देख के जाते है
पता वहीँ का देती हूँ, उनको भी आबाद बना देगा मौला

मेघ खूब उमड़ आते है तो क्या, प्यास वहां क्या लगती नहीं
बंज़र पे लगा दे तू पौधा, प्यास का मतलब बता दे मौला

सांझ तेरी थली पे नित आऊ, तेरा दिया रोज़ जलता है
मंदिर मस्जिद रोज बेठता है, खुद को दिलो में बसा दे मौला

दर पे एक दिन भी बाती मैंने न जलाई, आने वालो की कमी नहीं
तेरा घर जिसने ना भी देखा, उनके भी दुःख मिटा दे मौला

Saturday, October 9, 2010

चाह

मैं बीत जाना चाहता हूँ
हंसी के गलियारों में
बहा के ले जाती है
रह रह के ठंडी हवा
वहां मुझ को..

कुछ मुस्काने दबी पड़ी है
वंहा जैसे अभी , वो वहीँ है
पलको भीतर जिन्दा है
दौड़ते हुए बातें करता हूँ
दूर हूँ, कंही साथ लेके चलता हूँ

जान पड़ता है, जैसे वहीँ है सब
बस थोड़ी सी देर हो गयी
मैं गया नहीं , पर ...
वक़्त के थपेड़े लगते रहते है,
फिर , बदलना तो मेरी भी आदत है

शुरू से जब पैदा होता हूँ
हर चीज़ पीछे छूट जाती है
ये तरीका किसी ने दिया है
की.. बदलने की चाहत में
पूरा बीत जाता हूँ .

Thursday, September 9, 2010

कराह

प्रेम कर भले, .... रब को पाले
बैर रख भले... जल जा ... मन को दे जाने
कर ले .. कर ले , उसको इतना कर ले
जब बेठ अँधेरे में, आँख जो खोले
सुलगता हुआ कुछ तो मिलेगा
तुझको .....
जिसने तपाया था, राख में भी आ ..पाले

ख़ुशी का क्या है, एक जो भ्रम है
और वो दूजा... जो भ्रम में डाले
हो लेगा एक पल में उसका...
आजा अन्दर के अँधेरे में
दूजे में ... वो खुद तुझको अँधेरे में डाले

प्रेम, बैर....अपना या कोई गैर
सब सुलगते है ... एक..
चमकती रौशनी में
किसी को ना कुछ जान पड़ता है
बस टपकेंगे कुछ बूंद आंसू के
वो एक तलब है ...
शायद किसी के ना होने की
या शायद कोई हो ... ऐसे की

बंद आँखों में बहकते हुए सारे .. सब
एक मुस्कराहट में इतनी सरलता से
बह ... जायेंगे
आन पड़ेगा .. कभी जान पड़ेगा
क्या था वो ... क्यों किया मैंने ..
कुछ नहीं आने दे !

बात बातो की हमेशा रहेगी
आज कल और फिर परसों
या उस से पहले ...
खाक तो होना ही था ..
फिर बीता याद आता है
तय करना होता है
शायद पहले ..
जब खाक होगा.. तो सोचना ना पड़े ..
मुझसे क्या छुटा था

बस वक़्त की ही तो बात होती है
कुछ देखते है ... और जब
तू करता है ... तो कुछ कहते है
क्या फरक है ?
सब अब उस ..रौशनी में सुलग रहे है
वो जलाके जलते है .. तू जलके जल रहा है

कभी..... एक रचना सिर्फ ढोंग की होती है
किसी से पूछो तो उसे सोचना होता है ..
फिर सोचता हूँ .. सीधा जवाब तो ..
जबान पर होता है ..
फिर क्यूँ ... !

बह गया सब .. पर कुछ था नहीं मेरा
जो मेरा था .. वो एक मेरा ही ले गया
ऐसा होता है .. जब वो मेरा .. मेरे बाहर होता है
गए हुए में .. अब मैं क्यों मेरा ढूढू
सब संग ही तो ..सुलग रहे है

मुड के जब पीछे देखता हूँ तो
सुलगती रौशनी अलाव बन जाती है
कडकती ठण्ड में मन को अजीब सा ...
आराम देती है..
पर ठण्ड तो मौसमी है ..
जब तक काम ना करूँ
अगली गर्म तक ..
जब तक खुद ना तपता रहूँ

कभी.. कभी सुलगते हुए को
देखने में कुछ बुरा नहीं है
देखना भी चाहिए..
कितने मौसम पार किये है
बरसती बूंदों में .......
खुद ने भी कुछ दान किये है

महक तो बसंत है
प्रेम एक बहक है..
ख़ुशी में एक ललक है
उसका अगला भी आता है
हर किसी को कुछ ऐसा ..
लिखवा जाता है
ले ..
तू पढ़ ले इसी मौसम में
अलाव तो अभी.. अभी सुलगा है
पर वो मेरा है
तेरा कुछ नहीं है ..
तू बस ताप रहा है ..
ताप ले .. ..और चला जा

..paras