Monday, July 6, 2009

मेरी पाठशाला (अपेक्षा)

इच्छा मेरी, दुखों की जननी
सीख के मैंने, कर के जानी
धुप में खिले, रंगों की रानी
इच्छा करूँ, मेहनत से पाऊ

बिन समय, जब जो सोचूं
कमजोर मैं, किस्मत कोसु
तोड़ अपेक्षाएं, खड़ा होके
तिनका तिनका, गढ़ता जाऊँ

जब सोचा, लालसा को पकड़ा
मेरा बंधन, मुझी से अकडा
इतना भोला, कभी ना जाना
अब जब सोचा, तो खुल जाऊँ

अपेक्षा मेरी, मैं जानू
करू मैं, भरू ही मैं
किया जिससे, वो क्या ले
तोडके उस से, मुझ को बनाऊ

मुक्त विधा में, कला आएगी
असंभव काम, कर वो जायेगी
विधा मेरी, मेरे अन्दर
खूब सोचा, अब कोर ही जाऊँ

शंका सबकी, इतनी छोटी
चींटी जैसी, सूंड में डोले
छींक डालू, तीव्र वेग से
जब मिटे, आशा भर जाऊ

जो कुछ न होगा, भरूँगा क्या
जीवन मिला, और अपेक्षा क्या
मैं एकल, सब को समेट
केवल ज्ञान, विरल हो जाऊँ

सबकी अभिलाषा, गवाक्ष खोले
जितना अन्दर, वही ढप डाले
शंका सबकी, पूरण काज में
छोड़ अपेक्षा, कर्म को जाऊ..

paras...

1 comment:

Abhishek Jain said...

nice . i cant change human behvior. how can i satisfy. i want more and more. more affection. more love more .more..more...more...ye dil mange more...ku ki me hoo kam chor...