Tuesday, November 10, 2009

सृजन

खूब जाता हूँ गहराई तक
क्या फायदा साथ ना रोशनी
इस बार वापिस आया हूँ
लेकर जाऊंगा, बस उतनी
जिस से रोशन हो जाए
वो गहरा गर्त जिसमें जाना होगा ।

मिलती है खूब परछाइयाँ मुझे
संग मेरी चलती है ख़ुद मेरी
हर वक्त ताकती है बिन आँखों के अपलक
जहाँ जितना चलूँगा साथ चलेगी..
ना चाहूँ.. तो अंधेरे में भी चलना होगा !

खूब बिखेरा है ख़ुद को यहाँ
अब टुकड़े ख़ुद बोलतें हैं जोड़ दो हमें
समेटने की मेरी ये कोशिश
कटिबद्ध परन्तु कुछ मिल नही रहें
शायद कुछ ... या एक जो किसी और के पास होगा !

पहुँच यहाँ अब मैं सोचता हूँ
कितना आसान था सब करना जो किया
मुश्किल अब भी वही है
पर पहुँच वहां , जहाँ अब चाहता हूँ
शायद फिर यही सोचूंगा !

साथ मेरे कौन है... कोई साबुत ??
नहीं ... वो टुकड़े जो मेरे है
समक्ष बिखरे हुए .... हर एक की कहानी है
अब भी जो सोचूं, ना कोई आने वाला
समेटना भी ख़ुद मुझे होगा !

अन्दर की परिभाषा भी कहती है बदलो मुझे
बड़ा मुश्किल है हर बार , बार बार
कुछ ऐसा बदलना जो फिर बदलेगा
क्यों न कुछ ऐसा बनाऊं
जो स्वयं पर हो, ना किसी साबुत पर होगा !

तब उन चंद टुकडों की संग शक्ति मिलेगी
वो मेरे आईने है, अलग अलग ...
जब मेरे साथ होंगे , तो हर दम पास होंगे
सब कुछ कर दूंगा, सोचा था जो चाहा था
फिर वो साबुत इस बिखरे को आन मिलेगा !

बड़ा मुश्किल होता है, संग सब साथ ले चलना
सब यही छोड़ रहा हूँ, कुछ ना जाएगा... खैर
कुछ एक तो हर वक्त है, जिन्हें मैं ख़ुद बना दूँ
मेरी कला मेरी परछाई से बढ़कर है
न मांगे रोशनी, बस एक अधीर सकल मन होगा !

जब जो करूँ , सोचूं की वो मेरा है
किसी को ना देखूं, क्योंकि ये मेरा है
जैसे तैसे ऐसे सोचूं की मेरा है
फिर जब सब बन जाएगा ..... तब रहना सदा ही मेरा है !

..पारस

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