Thursday, May 12, 2011

सोचा तो सुलग पड़ा ऐसे

मेरी साख कंहा तक जाती है
मुझे खुद नहीं पता
पर एक तलब किसी को जताने की
खुद को खुद तक समेट ले आती है

बेबुनियाद तरीके है मेरे
तलब और नासमझी भर देती है
खुश्क भीगना चाहता है यंहा,
पर भीगे को सूखे का अहसास नहीं

वाजिब चीजों के फ़लसफ़े मुझी तक है
गनीमत है उनको कभी कहा नहीं
मेरे कहने से कुछ नहीं बदलता
खुश्क भिगोना चाहे भी तो, मैं तो भीगा ही हूँ

गहरे राज़ दिल में दबे ही रहते है
निकलते निकलते उड़ते पंछी से हो जाते है
मैं क्या कहूँ, कहने की हालत नहीं
खुश्की मिटती नहीं, और वो बरसता नहीं

अपनी शख्सियत कितनी महँगी होती है
मैं तो कहूँगा बेच दो, जितनी भी हो
अगर अभी भी खुश्क है, तो बिक जायेगी
किसी ने सही में खरीदना चाहा तो..
बिकने ही नहीं जायेगी

बची चीजों को तराजू में तोलने का मतलब नहीं
उनसे कुछ वक़्त बच जाए तो रख लो
वो लगी हुयी जंग जितनी ही कीमती है
अभी भी तराजू ताक में रखा है तो
अगली बार लोहा ही न लेना

..paras

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